!! जिम्मेदारी !!
नर देह धरा क्या इसी लिए मैं जिम्मेदारी बन जाऊँ।
पर बांध बैठकर डाली में, आसमान को ललचाऊँ।।
पर बांध.........।।
देह का रग-रग भरा हुआ है कर्तयों के अहसासों से,
जीवन का पल-पल दबा हुआ है, अपनों के अहसानो से।
निज क्षुधा त्यागकर अपनों की हर भूख मिटाता फिरता हूँ,
सबको मैं जलपान कराकर खुद एक कौर को ललचाऊँ।।
पर बांध.......।।
बचपन सीख- सीखकर बीता, यौवन गया कमाने में,
सबकुछ पाया दुनिया में, फिर सब खो गया जमानें में।
आदि वही है अंत वही है, करकमलों का खाली होना,
साथ नही कुछ जाना मेरे, फिर सामान देख क्यों ललचाऊँ।।
पर बांध.........।।
जब छोटे थे तो बड़े हमें हर सीख सिखाया करते थे,
कर्ज है क्या फ़र्ज़ है क्या ये बात बताया करते थे।
जब बड़े हुए तो बच्चों ने अब सीख सीखना शुरू किया,
क्या खुद से मैं मोह करूँ और अम्बर में मैं उड़ जाऊँ।।
पर बांध.........।।
1 comment:
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